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ग़ज़ल
जिन की हल्की गहरी तल्ख़ी ख़ून में रच रच जाती है
जुज़्व-ए-हयात बनाने पड़े हैं वो अशआ'र-ए-'मीर' हमें
मुख़्तार सिद्दीक़ी
ग़ज़ल
सच तो ये बात है ऐ 'ऐश' कि पाते हैं यहाँ
तेरे अशआ'र में तर्ज़-ए-सुख़न-ए-'मीर' की बू
हकीम आग़ा जान ऐश
ग़ज़ल
अशआ'र-ए-ग़ज़ल 'मीर' के लहजे में न लिक्खो
सुनने को तुम्हें ख़स्ता-जिगर आते हैं कितने
शेहाब काज़मी
ग़ज़ल
कोई समझे कि न समझे तिरे अशआ'र 'कलीम'
ज़ोर-ए-'ग़ालिब' भी है और दिलकशी-ए-'मीर' भी है